Saturday, 20 August 2011
Sometimes it hurts, it did, today.....
Tuesday, 2 August 2011
शायद ज़िंदगी बदल रही है ….
शायद ज़िंदगी बदल रही है ….
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक
का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप",
"विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...
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जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं...
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती ……….SIRF दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है………
शायद वक्त सिमट रहा है……….?????
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जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो लड़कियों की बातें,
वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है……????
जब भी "Traffic Signal" पे मिलते हैं
"Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन,
नए साल पर बस ‘SMS’ आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं…… ??
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जब मैं छोटा था,
तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप.
अब internet, e-mail,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है…… ??
………….
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है...
"मंजिल तो यही थी,
बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी
यहाँ आते आते"
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ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है...........!!!!
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
अब बच गए इस पल में…..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो,
मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो......
खूब जियो मेरे दोस्त…....... !!!!!!
Thursday, 28 July 2011
जौक और ग़ालिब की दिल्ली :- यहाँ वक्त बदलता है, अफ़साने नहीं...
दिल्ली वाकई में देश का दिल है| किसी नगमे सरीखा इसका इतिहास और वर्तमान, दोनों संगीतमय हैं| यहाँ गली-गली में ख़ौफ़ और शौक की कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं| ये चाँदनी चौक है, पुरानी दिल्ली है| मुगलों के शानो-शौकत का प्रतीक चाँदनी चौक आज भी दिल्ली के धड़कते हुए दिल की कहानी कहता है| ये लुटियन जोंस है, पॉवर ऑफ पॉलिटिक्स का गढ़| अँग्रेज़ों के जमाने में भी ये उतना ही महत्वपूर्ण था जितना की आज है| दिल्ली के एतिहासिक कद, इसकी सियासी हैसियत, सत्ता - सब कुछ अलग-अलग आकर्षक सतरंगे और विशिष्ट हैं|
जहाँ दिल्ली का इतिहास हमें गली-गली में रोमांचित करता है, कहानी-दर-कहानी हमें भारत के अतीत का ब्योरा देता है, वहीं इसका वर्तमान भी कुछ कम नहीं है| अगर अतीत की दिल्ली भारत के स्वर्णिम अतीत की चमकदार कहानी है तो वर्तमान की दिल्ली महाशक्ति के रूप में उभरते भारत की पहचान है| ताकतवर भारत का ड्राइंग रूम है| आधुनिक विकास में वाकई दिल्ली का कोई मुकाबला नहीं है|
...to be continued
Tuesday, 12 July 2011
दो साल बेरोज़गारी के...
मैंने जब से कंपनी छोड़ी है, अपने आप को हर क्षण कुछ ना कुछ खोते हुए ही पाया है| कई लोग कहते हैं कि मैने ये सब कर लिया, मुझमें काबिलियत है, मैं कुछ और भी अच्छा कर सकता हूँ| पर मुझे लगता है कहीं ये लोग झूठ तो नहीं बोल रहे, कहीं ये सब सिर्फ़ मेरे सामने ही मुझे श्रेष्ठ बताते हों और मेरे पीछे कहते हों की मैंने अपने कीमती २ साल बिना कुछ पाए बस ऐसे ही बेकार की बातों में खो दिए| क्या पता ये सोचते हों कि मैं अगर नौकरी करता रहता तो आज और भी अच्छी जगह पर होता| पर मेरे अनुसार अगर मैने कुछ पाया नहीं तो ये भी पक्की बात है कि मैने कुछ खास खोया भी नहीं है| अभी भी मुझे अपने पर भरोसा है| अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें मुझपे भरोसा है और मेरे भरोसे पे भरोसा है और मुझे उन लोगों पे भरोसा है| शायद ये भरोसा ही है जो मुझे इतनी दूर खींच लाया है, घसीट लाया है| इतनी उम्मीद मुझे अब भी है कि ये मुझे और आगे भी शायद ले जाएगा|
वैसे इन २ सालों बाद ज़्यादा कुछ नहीं तो अपने आप को अकेले तो पाता ही हूँ| लगता है कि सब लोग ना जाने कितने आगे निकल गये हैं और मैं शायद किसी बीहड़ या वीराने में गुम सा हो गया हूँ| तलाश है रास्ते की, ना जाने अकेले ही मिलेगा भी या नहीं, किसी मंज़िल पे पहुँचुँगा भी या नहीं| कई बार काफ़ी अकेला सा लगता है क्योंकि कोई दोस्त, साथी, हमसफ़र साथ में ही नहीं है| लगता है कि शायद कोई साथ में होता तो ये सफ़र आराम से और जल्दी से गुज़र जाता| पर अभी तो पता नहीं...
Sunday, 29 May 2011
Badal gayi dilli ya badal gaye hum...
Kyunki dilli aane ka nischay bhi ek aakhiri kshan hua tha to maine ghar bhi nahin bataya tha. Aisa nahin hai ki mere paas itna waqt hi nahin tha, asal mein mera ghar jane ka bilkul bhi man nahin tha. Socha ki hostel mein hi raha jaye, par pata nahin kyun har roz yahi khayal dimag mein aata rehta tha ki asal jagah mere rehne ki jahan main kisi bhi roop mein baadhy nahin hoon, woh to sirf iiit ka mera room hai. Hostel mein doston ke room, doston ke flat, didi ka ghar aur yahan tak khud apna ghar bhi pata nahin kyon chutki bhar apnapan bhi mere andar nahin dhakel paye the. Jab iiit mein tha to lag raha tha ki kya karunga yahan rehke so dilli aa gaya, par ab dilli mein aake bhi main ghut raha tha to laga ki kash Hyderabad hi reh jata aur yeh paraya hone ke bojh tale to na aata.
Asal mein kuchh bahut hi kareebi dost aur kuchh pyare se bachchon ne to itna bola tha apne sath rehne ko par jab dil hi na mane to aadmi kya kar sakta tha. Ek hafta bhar intezaar ke baad jab yeh kuchh had tak nishit ho gaya hai ki kya nahin karna hai to bhi dil ko tasalli nahin mil payi. Bas aise hi akele mein baithe baithe ek nazm si dimag mein utar aayi...
Pahuncha yahan to laga har road badla sa,
Laga har gali ka har ek mod badla sa,
Laga har din yahan badla sa, lagi har raat badli si,
Lagi har ek shakhsh ki har ek baat badli si,
Shehar ke log badle se, tha unka shor badla sa,
Yamuna jo behti hai, laga uska chhor badla sa,
Raunak thi badli si aur tha bazaar badla sa,
Apne parayon ka laga vyavahar badla sa,
Lagi dosti ajnabi si, aur woh yaar badla sa,
Bas ek hi to tha, tha woh bhi pyar badla sa,
Badle se is shehar ki roshni mein chundhiya gaye hum,
Pata nahin ki badal gayi dilli ya badal gaye hum...
Sunday, 1 May 2011
Dil ke mahal mein....
Dukh mein jahan ro sake aur sukh mein so sake.
Darwaaza-e-Dil na khol sabke liye,
Aisa na ho ki us bheed mein tu tanha na ho sake.
Shor is duniya ka jeene nahin dega tujhe,
Khamoshi bhi itni si rakh ki khud mein kho sake.
Duniya mein dushman to tujhe milenge anginat,
Dost koi aisa dhoondh jo jakhmon ko dho sake.
Dil ke mahal mein ek kamra apna bhi rakh 'Ghalib',
Dukh mein jahan ro sake aur sukh mein so sake......
Thursday, 28 April 2011
बात..... एक बिना कही सी........
उसे हाथ में दो थैले उठाये हुए देखा पर पता नहीं क्यों उसका हाथ बंटाने का और थोडा सा वज़न खुद उठाने की हिम्मत नहीं हुई| वो रोड के दुसरे सिरे पर और मैं दुसरे सिरे पर चल रहा था| बीच की पार्टीशन पर खड़े पेड़ों ने और फूलों की झाड़ियों ने हमें दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी| पता नहीं क्यों उसकी कला का कुछ अंश मेरे दिमाग में घुस आया और उसके समानांतर चलते-चलते बिना उसे कुछ बोले ही, मेरे मस्तिष्क के चित्रपटल पर एक चुप सा, बिना शब्दों का वार्तालाप उभर आया, और मैं उससे बिना बात किये हुए ही बात करता हुआ चलने लगा|
क्या बात है, कई दिन की खरीदारी एक ही साथ कर डाली?
हाँ, पर यह सारा सामान मेरा नहीं है| गयी तो कुछ और दोस्तों ने भी मुझे कुछ लाने को बोल दिया|
अच्छा तो तुम समाज सेवा कर रही हो|
नहीं, ऐसा कुछ नहीं है| दोस्तों का सामान लाना थोड़े न समाज सेवा होती है, और अगर होती भी है तो क्या तुम नहीं करोगे थोड़ी समाज सेवा| कुछ दूर ही सही, मेरा साथ तो दे ही सकते हो|
(मैं मन ही मन सोच रहा था की बिना कुछ कहे ही दोस्त भी कह दिया....)
सुनाई नहीं दिया? काफी वजन है, थोडा साथ दोगे?
कैसे तुम्हारे साथ चल सकता हूँ? हमारी मंजिलें अलग अलग हैं और इसीलिए रास्ते भी अलग अलग|
मंजिल अलग अलग हैं तो क्या हुआ, कुछ दूर तक रास्ता तो एक ही है|
पर फिर भी, तुम्हारा रास्ता नापना तो तुम्हें ही पड़ेगा ना|
इसका मतलब तुम मेरा इतना साथ भी नहीं दे सकते| गौर से देखो, मेरी मंजिल तुम्हारे रास्ते में ही पड़ती है, या ये कह सकते हो कि तुम्हारा रास्ता मेरी मंजिल से होकर गुजरता है|
अच्छा, तो मैं इसका मतलब क्या समझूं?
इसका मतलब कि जब तक मेरी मंजिल नहीं आती, तुम मेरे हमसफ़र तो हो ही और साथ में मेरी मंजिल तुम्हें अपनी मंजिल के और नजदीक पहुंचा देगी|
हाँ, सो तो है, पर मुझे यह बताओ कि जब तुम्हारी मंजिल आ जाएगी और फिर हमारा साथ वही पर छूट जायेगा तो मैं आगे का रास्ता कैसे पार करूँगा?
क्यों उसमें क्या परेशानी होगी? तुम या तो मेरे साथ वाले सफ़र को याद कर लेना या दुबारा वैसे सफ़र की उम्मीद बांध लेना| आराम से रास्ता पार हो जायेगा|
तुम मुझे ये बताओ कि बाकि के रास्ते पर तन्हाई मेरी दुश्मन बनकर चलेगी या मेरी दोस्त बनकर?
ये तो मैं नहीं जानती, पर इतना जरुर जानती हूँ कि जैसे मैं मेरी मंजिल तक तुम्हारा साथ दूंगी, वैसे ही वहां से आगे मैं तन्हाई के रूप में तुम्हारा साथ दूंगी| किसी भी हालत में तुम अकेले तो नहीं रहोगे|
मैं उसकी दलीलों के आगे हार गया था| पर तभी रोड की लाइट बंद हो गयी, मैंने जैसे ही उसका सामान लेने के लिए पीछे मुड़ कर देखा तो वो कहीं अँधेरे में नज़र ही नहीं आई| शायद मैं इस दौरान कुछ ज्यादा ही तेज़ चल आया था और उसे और उसकी मंजिल को कहीं पीछे छोड़ आया था| बस मन में एक टीस लेकर मैं आगे बढ़ गया| सच तो ये है कि मैं अभी भी सफ़र में हूँ और उसकी मंजिल बस आ ही गयी है| कुछ ही दिन में वो यहाँ से चली जाएगी, पता नहीं फिर खाली रोड पे किसी से ऐसे ही बातचीत हो पायेगी या नहीं| पर हाँ, वो जहाँ भी होगी, मेरा दिमाग उससे ऐसे ही बिना बोले बात करता रहेगा.....
रिश्ते........
थोड़ी सी 'शांति', ना कि 'आहट' की,
थोड़ी सी 'सादगी', ना कि 'बनावट' की,
साथ चलने की, ना कि 'लंगड़ाहट' की,
कुछ 'बातों' की, ना कि 'हकलाहट' की,
रिश्ते 'एकबार' बनते हैं, 'बारबार' नहीं,
उन्हें सिर्फ 'हाथ' चाहिए, 'आघात' नहीं,
उन्हें सिर्फ 'प्यार' चाहिए, 'व्यापार' नहीं,
यह मज़ाक सह सकते हैं, 'तकरार' नहीं,
कितना भी संभलो या संभालो, ये अक्सर टूट जाते हैं,
क्यूँ हम अपने ही वादों को अक्सर भूल जाते हैं,
क्यूँकर बीच में कई बार फ़ासले आ जाते हैं,
क्यूँ हम चाहकर भी उन्हें मिटा नहीं पाते हैं,
शायद इनकी भी हमारी तरह तकदीर होती हो,
हमसे छीन लिए जाते हैं, शायद यह भी किसी की जागीर होती हों,
शायद.......
Monday, 25 April 2011
Popcorns smell nice today.....
It was winter season in Delhi. Delhi, the city which gave me a lot during my stay there and forced me into Existential Crisis. During my first year in MCA, when I was staying with my sister in Nangloi and had a daily up-and-down routine from Delhi University to Nangloi, I used to go with Gagan, Shobhit and Yogesh. We almost always left dept. together and separated with each other at different locations. Shakti Nagar or Lilawati Vidya Mandir or Shashtri Nagar was separating point for Yogesh, Inder Lok for Gagan and then finally Paschim Vihar for Shobhit.
During this schedule, we usually talked about the happenings of day and at point of separation, we always used the single statement "Chal phir, kal milte hain." Mostly this promise was kept by everyone of us but I left the route when I started staying in hostel. Along with this daily promise, a lot of things were left now. Sharma Ji ki Kachauri, Gopal ki Poori and Chacha Jaan(never knew the name) ki Moonfali aur Popcorn and few other things also. All these things were left behind.
Those groundnuts and popcorns always helped in waiting for bus. I remember that there was hardly a day when I didn't took groundnuts and didn't have a little talk with Chacha Jaan. His words still echo in my ears when I used to run and ride into bus and he always said, "Sambhal ke beta." He always cooked fresh popcorns and gave to me and that too more than he gave to all other customers. I tried many times to tell him that why are doing this and he always replied with a smile, "Apna hi bachcha kha raha hai. Achchha lagta hai." He asked me only once that what am I doing, and I told him that I study in University and then he never asked. At times I saw him just waiting for me when I came late and after sometime I told "Chacha, don't wait for me in cold. You should go home at time." but he just smiled and told that okay, I will not wait tomorrow. I always saw him packing up when I took the bus.
Suddenly this stopped and I always missed him but every week or once in two weeks I used to go Nangloi and always talked to him. Frequency of my visit to Nangloi went on decreasing and so was my meetings with Chacha Jaan. I started using a new route but always had a guilt for changing the route. At times I tried the old route but it gave me more pain after seeing that point blank. He was not there. I asked other shopkeepers near him but no one gave me an answer about his whereabouts. I stopped using that route and almost forgot him after some time.
When I got job and was working in Gurgaon but staying at Hostel only, then at the end of my MCA, I was going to Nangloi on same route. I wasn't even thinking of him. I left the bus and was just standing there waiting for my bus. "Are suno beta", suddenly I heard this well-known voice. I turned and saw that Chacha Jaan was there. He told me that you forgot me son, and I just told him that Yes. I was even shocked that I said this so easily. He asked me what are you doing now. I told him that I got a job and I am working in Gurgaon. He suddenly come in front of me with open arms and with tears in eyes, he said, "Allah-Miyan ne meri sun li." and hugged me. Newton's third law showed its power and I hugged him like that I have got something very close to me after a very long time. He said, "Bahut yaad aate the beta. Tum to gum hi ho gaye" and tear dropped from my eyes and I just said, "Phullon ki khushboo achchhi aa rahi hai chacha aaj.(Popcorns smell nice today.)" I took popcorns and took my left and just saw him from the window as long as I was able to see him. I never saw him there after that day. Even in January, when I was in Delhi, I saw that point everyday but never found him.
I don't know where is he now. I just remember his face and hope that someday when I will be passing from there I will see him and I will taste those popcorns and groundnuts after a long time. I just think about him and his popcorns. He was much more than a seller. Surely he was....