Tuesday 12 July 2011

दो साल बेरोज़गारी के...

दो भी क्या, दो से ज़्यादा ही हो गये हैं| ३० मई २००९ को मैं कंपनी छोड़ के आया था| आज खाली बैठे-बैठे ऐसे ही बस पिछले २ साल का हिसाब किताब देखने का मन किया| इन २ सालों में क्या खोया, क्या पाया, क्या छोड़ा, क्या जोड़ा, क्या टूटा, क्या छूटा| असल में ये सब अवलोकन इतना आसान और इतने सहज भाव से नहीं हो जाता| अक्सर कुछ यादें, कुछ दर्द, कुछ घाव और कई बार कुछ खुशियाँ छोड़ जाता है| फिर भी मेरे अनुसार गाहे-बगाहे ये अवलोकन या सेल्फ़-ईवेलूएशन ज़रूरी सा हो जाता है| ये मदद करता है हमारी अपने लिए नये रास्ते चुनने में, नयी मंज़िलें तलाशने में, अपने लिए नये मापदंड बनाने में| पता चल जाता है कि हम कहाँ किस स्तर पर हैं और हमें कितने सुधार और मेहनत की ज़रूरत है|

मैंने जब से कंपनी छोड़ी है, अपने आप को हर क्षण कुछ ना कुछ खोते हुए ही पाया है| कई लोग कहते हैं कि मैने ये सब कर लिया, मुझमें काबिलियत है, मैं कुछ और भी अच्छा कर सकता हूँ| पर मुझे लगता है कहीं ये लोग झूठ तो नहीं बोल रहे, कहीं ये सब सिर्फ़ मेरे सामने ही मुझे श्रेष्ठ बताते हों और मेरे पीछे कहते हों की मैंने अपने कीमती २ साल बिना कुछ पाए बस ऐसे ही बेकार की बातों में खो दिए| क्या पता ये सोचते हों कि मैं अगर नौकरी करता रहता तो आज और भी अच्छी जगह पर होता| पर मेरे अनुसार अगर मैने कुछ पाया नहीं तो ये भी पक्की बात है कि मैने कुछ खास खोया भी नहीं है| अभी भी मुझे अपने पर भरोसा है| अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें मुझपे भरोसा है और मेरे भरोसे पे भरोसा है और मुझे उन लोगों पे भरोसा है| शायद ये भरोसा ही है जो मुझे इतनी दूर खींच लाया है, घसीट लाया है| इतनी उम्मीद मुझे अब भी है कि ये मुझे और आगे भी शायद ले जाएगा|

वैसे इन २ सालों बाद ज़्यादा कुछ नहीं तो अपने आप को अकेले तो पाता ही हूँ| लगता है कि सब लोग ना जाने कितने आगे निकल गये हैं और मैं शायद किसी बीहड़ या वीराने में गुम सा हो गया हूँ| तलाश है रास्ते की, ना जाने अकेले ही मिलेगा भी या नहीं, किसी मंज़िल पे पहुँचुँगा भी या नहीं| कई बार काफ़ी अकेला सा लगता है क्योंकि कोई दोस्त, साथी, हमसफ़र साथ में ही नहीं है| लगता है कि शायद कोई साथ में होता तो ये सफ़र आराम से और जल्दी से गुज़र जाता| पर अभी तो पता नहीं...

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