Thursday 28 April 2011

बात..... एक बिना कही सी........

बाज़ार से आ रहा था और जैसे ही कैम्पस में घुसा, रजिस्टर में एंट्री कर ही रहा था कि वो सामने नज़र आई| वैसे तो वो अक्सर क्लास में दिख जाया करती थी पर आज पता नहीं क्यों बरबस ही ध्यान खिंचा चला गया| उसकी कहानी लिखने पढने की और टूटे हुए ताने-बाने से कहानियाँ गूंथने की कला मुझे बहुत अच्छी लगी थी इस बार के फंक्सन में|

उसे हाथ में दो थैले उठाये हुए देखा पर पता नहीं क्यों उसका हाथ बंटाने का और थोडा सा वज़न खुद उठाने की हिम्मत नहीं हुई| वो रोड के दुसरे सिरे पर और मैं दुसरे सिरे पर चल रहा था| बीच की पार्टीशन पर खड़े पेड़ों ने और फूलों की झाड़ियों ने हमें दूर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी| पता नहीं क्यों उसकी कला का कुछ अंश मेरे दिमाग में घुस आया और उसके समानांतर चलते-चलते बिना उसे कुछ बोले ही, मेरे मस्तिष्क के चित्रपटल पर एक चुप सा, बिना शब्दों का वार्तालाप उभर आया, और मैं उससे बिना बात किये हुए ही बात करता हुआ चलने लगा|

क्या बात है, कई दिन की खरीदारी एक ही साथ कर डाली?
हाँ, पर यह सारा सामान मेरा नहीं है| गयी तो कुछ और दोस्तों ने भी मुझे कुछ लाने को बोल दिया|
अच्छा तो तुम समाज सेवा कर रही हो|
नहीं, ऐसा कुछ नहीं है| दोस्तों का सामान लाना थोड़े समाज सेवा होती है, और अगर होती भी है तो क्या तुम नहीं करोगे थोड़ी समाज सेवा| कुछ दूर ही सही, मेरा साथ तो दे ही सकते हो|

(मैं मन ही मन सोच रहा था की बिना कुछ कहे ही दोस्त भी कह दिया....)

सुनाई नहीं दिया? काफी वजन है, थोडा साथ दोगे?
कैसे तुम्हारे साथ चल सकता हूँ? हमारी मंजिलें अलग अलग हैं और इसीलिए रास्ते भी अलग अलग|
मंजिल अलग अलग हैं तो क्या हुआ, कुछ दूर तक रास्ता तो एक ही है|
पर फिर भी, तुम्हारा रास्ता नापना तो तुम्हें ही पड़ेगा ना|
इसका मतलब तुम मेरा इतना साथ भी नहीं दे सकते| गौर से देखो, मेरी मंजिल तुम्हारे रास्ते में ही पड़ती है, या ये कह सकते हो कि तुम्हारा रास्ता मेरी मंजिल से होकर गुजरता है|
अच्छा, तो मैं इसका मतलब क्या समझूं?
इसका मतलब कि जब तक मेरी मंजिल नहीं आती, तुम मेरे हमसफ़र तो हो ही और साथ में मेरी मंजिल तुम्हें अपनी मंजिल के और नजदीक पहुंचा देगी|
हाँ, सो तो है, पर मुझे यह बताओ कि जब तुम्हारी मंजिल जाएगी और फिर हमारा साथ वही पर छूट जायेगा तो मैं आगे का रास्ता कैसे पार करूँगा?
क्यों उसमें क्या परेशानी होगी? तुम या तो मेरे साथ वाले सफ़र को याद कर लेना या दुबारा वैसे सफ़र की उम्मीद बांध लेना| आराम से रास्ता पार हो जायेगा|
तुम मुझे ये बताओ कि बाकि के रास्ते पर तन्हाई मेरी दुश्मन बनकर चलेगी या मेरी दोस्त बनकर?
ये तो मैं नहीं जानती, पर इतना जरुर जानती हूँ कि जैसे मैं मेरी मंजिल तक तुम्हारा साथ दूंगी, वैसे ही वहां से आगे मैं तन्हाई के रूप में तुम्हारा साथ दूंगी| किसी भी हालत में तुम अकेले तो नहीं रहोगे|

मैं उसकी दलीलों के आगे हार गया था| पर तभी रोड की लाइट बंद हो गयी, मैंने जैसे ही उसका सामान लेने के लिए पीछे मुड़ कर देखा तो वो कहीं अँधेरे में नज़र ही नहीं आई| शायद मैं इस दौरान कुछ ज्यादा ही तेज़ चल आया था और उसे और उसकी मंजिल को कहीं पीछे छोड़ आया था| बस मन में एक टीस लेकर मैं आगे बढ़ गया| सच तो ये है कि मैं अभी भी सफ़र में हूँ और उसकी मंजिल बस आ ही गयी है| कुछ ही दिन में वो यहाँ से चली जाएगी, पता नहीं फिर खाली रोड पे किसी से ऐसे ही बातचीत हो पायेगी या नहीं| पर हाँ, वो जहाँ भी होगी, मेरा दिमाग उससे ऐसे ही बिना बोले बात करता रहेगा.....

4 comments:

preksha said...

log milte hain aur bichhad jate hain , par yaadein reh jati hain, na jane kyun hame hamesha ek hamasafar ki talash rehti hai jo hume poora karta hai , lekin shayad hum us talash mein kahin apne ko hi bhul jate hain , aur is tark ka uttar aapne bakhuub apni ghalib wali panktiyon se diya hai jo dil ko chhoo gayi hain :)

Unknown said...

mai akela chala tha , karwa banta gya...ase hi kuch kahawat hai....aap raste pe chalte raho...chahane wale milte jayenge...bas jo mile unhe sanjo kar rakhna hai hume...sanjeet sir....bhut achha tha. Ak pal mujhe bhi kuch asa hi lagne laga padte hue...nice work....

Raj Tomar(Rajnish) said...

nice one bhai..likhte rah...dil halka rahta hai aur aawaz dusron tak pahunchti hai...

Daksha said...

Sanjeet sir, safar jindgi ka ho ya raste ka hamesha bada lagta hai agar dil ya dimag me se koi bhi khali ho...aur dono me se koi bhi aik agar apna kam kar gaya samjho rasta par ho gaya...kya baat likhi hai aapne...
apke shabdo ki mala se yahi prerna milti hai...aise hi likhte rahiye aur hamre prernashrot bane rahen...:)