Saturday 13 March 2010

ये पहले क्यों नहीं हुआ?

ज़िन्दगी कुछ दिनों से सरपट रास्ते पर डगमगाती हुई चल रही थी। हवाओं में भी कुछ ख़ास होने की आहट थी। कई बार लगता था कि कुछ अलग सा होने वाला है, पर ये दस्तकें कई बार मेरी ज़िन्दगी के इंतज़ार करते हुए दरवाजों से वापिस जा चुकी थी। कल रात को भी किसी से ऐसे ही दो टूक बात हुई कि कल क्या होने जा रहा है, पर मैं जवाब नहीं दे पाया। बात थी ही कुछ ऐसी। क्या आप किसी के दिमाग में हो रही उथल पुथल को बिना बात किये जान सकते हैं जबकि उस शख्श को आपने कभी अपनी ज़िन्दगी से दरकिनार करने की कोशिश या गलती की थी। मुझे लगता है की मैं समझ पाता था, और ये भी समझ पाता था कि वो क्या समझ रहा है। सुबह पता नहीं उन सब सपनों को पूरा करने के लिए भी आई थी या नहीं जो मेरी थकी हुई आँखों ने सुनसान रात में देखे थे। मैं उसकी ख़ुशी के लिए वो सब करना चाहता था जो उसने कभी मेरी ख़ुशी के लिए किया था। आज के दिन होने वाले इस नाटक का रचनाकार और निर्देशक दूर बैठकर पहले ही सब कुछ निर्धारित कर चुका था। सुबह से ही शायद, या कुछ दिन पहले से ही आज के दिन के नाटक में आने वाले इस क्लाइमेक्स सीन की पूरी परी-पाटी तैयार हो चुकी थी। सब कुछ बड़े ही संभाले हुए तरीके से, बड़े आराम से चल रहा था। शाम आई, पर पता नहीं क्यों एक छोटे से काम के लिए ग्रीन सिग्नल नहीं मिल रहे थे। शायद सब कुछ बड़े ही प्राकृतिक अंदाज़ में होने वाला था। तारे चाँद के बिना ही आसमान में इस उथल पुथल को देखने आ गए थे जैसे कई बार बच्चे बिना पापा या चाचा के मेला देखने चले जाते हैं। पता नहीं क्यों मैंने डरते हुए दो टूक बात कही जो अपने आप में मेरे लिए शास्त्र लिखने से बड़ी थी और मैं तुरंत थिएटर से निकल गया। पर अभी इस सीन में दूसरे कलाकार को भी तो कुछ बोलना था। मुझे फिर थिएटर में आना पड़ा, इस नाटक के आखिरी हिस्से को हम दोनों की ख़ास जरुरत थी। फिर वही हुआ जैसा फिल्मों में होता है, दे लिव्ड हेपिली एवर आफ्टर। काफी ख़ुशी थी दोनों को, सब कुछ साफ़ हो चुका था शायद। विधाता ने भी दोनों को मिलाकर अपने हाथ झाडे। अब सब कुछ फिर से समान्य हो जाने की उम्मीद थी। इस सब के अच्छी तरह से संपन्न होने के पीछे कुछ बाल कलाकारों का बड़ा महत्व था। हम हमेशा उनके आभारी रहेंगे। और बाकी की स्टोरी बाद में डिस्कस करते रहेंगे। :)