Monday 1 June 2009

चादर पर अब सलवटें नहीं मिलती...

मेरे घर में मुझसे अलग तीन प्राणी रहते हैं,
दो प्यास में रहते हैं, एक आस में रहता है।

मैं बाहर पढता हूँ, काम करता हूँ,
घर पर कई महीनों बाद जाना होता है,
इस बात का उन्हें ग़म भी और गुमान भी रहता है।

ऊपर चौबारे में बस अब कुछ चारपाई
और अलमारियों में पापा की किताबें पड़ी हैं,
मेरा सब सामान तो मैं ले आया हूँ,
घर में फिलहाल तो मेरी याद का साया रहता है।

उस बिस्तर पर भी सुबह देखो तो
चादर पर सलवटें नहीं मिलती,
वहां कोई सोता नहीं है ना,
वो कमरा भी अब सूना सूना, खाली खाली सा रहता है।

ऐसा नहीं है कि मुझे घर की याद नहीं आती,
या मेरे दिल में घर वालों के लिए अरमान नहीं,
बस मैं घर ज्यादा नहीं जा पाता
आजकल मुझे "
ऑफिस" में काम रहता है

बाहर रहते हुए एक अरसा सा बीत गया है,
आदत भी पड़ गई है अब तो,
परायों में अपने ढूंढ लिए हैं मैंने,
वो मुझे अब अपनों से भी ज्यादा प्यारे लगते हैं,
बस अब इन्हीं अपनों में मेरा संसार रहता है


अब इन अपनों में से कुछ दूर जाने लगें हैं,
और कुछ से मैं दूर निकल गया हूँ,
शायद कभी ये सारे यूँही मुझसे बिछड़ जायेंगे और मैं इनसे,
आजकल मुझे यही डर खाता रहता है