Tuesday 27 April 2010

टूटते परिंदे की पुकार.....

एक क्षण की ख़ुशी के बाद जब असलियत सामने आती है तो कई बार बहुत बुरा लगता है। कुछ दिन पहले की ही तो बात है, वो अपने आप को कितना गौरवान्वित महसूस कर रहा था, कितना खुश था अपनी छोटी सी कामयाबी पर। पर हालात हमेशा एक से नहीं रहते, फूल हमेशा खिले नहीं रहते, बहारें आने के बाद लौट जाती हैं, खिज़ा को भी आना है यह शायद वो भूल गया था, या फिर उसे यह सब इतना जल्दी होने की उम्मीद नहीं थी।

खैर जो भी हो, पिछले कुछ दिन से वो धीरे धीरे ही सही भुरभुराता जा रहा था, तिनका तिनका ही सही वो टूटता जा रहा था। उसे अपने आप पर बहुत फख्र था, अपने आप को आकाश की बुलंदियों पर समझ रहा था और अब उसे पाताल सामने नज़र आ रहा था। ऊपर वाले को भी तो इस चीज का ख्याल रखना चाहिए कि उसके बनाये हुए लोग शायद इतनी जल्दी परिवर्तन के आदी नहीं हैं।

आप हर बार पिछले सालों की बारिश से इस साल के मौसम का अंदाज़ा नहीं लगा सकते, पर उससे यह भूल हो गयी। वो पगला समझ बैठा की इस साल भी वही दोहराया जायेगा, जो अब तक होता आ रहा था। उसे तो यही लग रहा था कि उसकी मंजिल उसके पास ही कहीं है, दिखाई नहीं दे रही तो क्या हुआ। पर इस एक झटके ने तो उसे झझकोर कर ही रख दिया था। अब क्या होगा? कैसे होगा? उसे मंजिल मिलना तो दूर दिखेगी भी या नहीं? प्रश्नों का झंझावात उसे तोड़ कर रखने पर उतारू था। उसे इस में से सकुशल बाहर निकलना था, ताकि अगले तूफ़ान से लड़ने के लिए अपनी किश्ती तैयार कर सके। उसे ये सब करने के लिए किसी के सहारे की नहीं, किसी सहारे की जरुरत थी।

वो वो मैं था और कुछ भी नहीं जानता था कि उसके साथ क्या होने वाला था.......